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कविता

भ्रम

लीना मल्होत्रा राव


मैं
कभी उसे ट्रेन तक छोड़ने नहीं जाती
ट्रेन की आवाज मेरी धड़कन में बस जाती है

जब तक वह लौट नहीं आता
मेरा दिल,
विदा होती ट्रेन की गति सा चलता है सरपट
धड़कता है छुक-छुक कि और कुछ सुनाई नहीं देता उसके शोर में

मैं उसके साथ गए बिना ही
एक सफर में शामिल हो जाती हूँ

रात सोते समय भी मेरे बिस्तर पर धूप उतर आती है
और भागते हुए पेड़ मेरे जीवन की स्थिरता को तोड़ते रहते हैं

सड़कों के किनारे खाली खेतों में
वीरान पड़े मंदिरों की तरह
मैं अकेली हो जाती हूँ
जब भी वह शहर से दूर जाता है
मैं उसे स्टेशन के बाहर से ही छोड़ कर चली आती हूँ

तब
कई-कई दिन तक मुझे लगता है
वह सब्जी लेने गया है
या हजामत बनवाने,
बस,
आता ही होगा
भ्रम पालने में
वैसे भी हम मनुष्यों का कोई सानी नहीं।


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